Wednesday 17 July 2013

(कन्या भ्रूण-हत्या एक जघन्य अपराध)

(कन्या भ्रूण-हत्या एक जघन्य अपराध)







प्रत्येक शुभ कार्य में हम कन्या पूजन करते हैं, लेकिन बड़ा सवाल है कि उसी कन्या को हम जन्म से पहले ही मारने का पाप क्यों करते हैं? आज समाज के बहुत से लोग शिक्षित होने के बावजूद कन्या भूर्ण हत्या जैसे घृणित कार्य को अंजाम दे रहे हैं। जो आंचल बच्चों को सुरक्षा देता है, वही आंचल कन्याओं की गर्भ में हत्या का पर्याय बन रहा है।हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या-भ्रूण हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। जिस देश में स्त्री के त्याग और ममता की दुहाई दी जाती हो, उसी देश में कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना बहुत बड़ी विडंबना है।आज भी शहरों के मुकाबले गांव में दकियानूसी विचारधारा वाले लोग बेटों को ही सबसे ज्यादा तव्वजो देते हैं, लेकिन करुणामयी मां का भी यह कर्तव्य है कि वह समाज के दबाव में आकर लड़की और लड़का में फर्क न करे। दोनों को समान स्नेह और प्यार दे। दोनों के विकास में बराबर दिलचस्पी ले। बालक-बालिका दोनों प्यार के बराबर अधिकारी हैं। इनके साथ किसी भी तरह का भेद करना सृष्टि के साथ खिलवाड़ होगा।
                               साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को, अल्ट्रासाउंड तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग की जानकारी देकर, समाज में कन्या भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी-सम्पन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है।1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम नेटल डायग्नोस्टिक एक्ट 1995 के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। इसके बावजूद इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है.अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी मशीन या अन्य तकनीक से गर्भधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के लिए लिंग परीक्षण करना, करवाना, सहयोग देना, विज्ञापन करना कानूनी अपराध है।
लेकिन यह स्त्री-विरोधी नज़रिया किसी भी रूप में गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं है. भेदभाव के पीछे सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियमों का अधिक हाथ होता है. यदि इस प्रथा को बन्द करनी है तो इन नियमों को ही चुनौती देनी होगी.कन्या भ्रूण हत्या में पिता और समाज की भागीदारी से ज्यादा चिंता का विषय है इसमें मां की भी भागीदारी. एक मां जो खुद पहले कभी स्त्री होती है, वह कैसे अपने ही अस्तितव को नष्ट कर सकती है और यह भी तब जब वह जानती हो कि वह लड़की भी उसी का अंश है. औरत ही औरत के ऊपर होने वाले अत्याचार की जड़ होती है यह कथन पूरी तरह से गलत भी नहीं है. घर में सास द्वारा बहू पर अत्याचार, गर्भ में मां द्वारा बेटी की हत्या और ऐसे ही कई चरण हैं जहां महिलाओं की स्थिति ही शक के घेरे में आ जाती है.औरतों पर पारिवारिक दबाव को भी इन्कार नहीं किया जा सकता.

 खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
आने  दो रे आ ने  दो, उन्हें इस  जीवन  में आने  दो

भ्रूणहत्या का पाप हटे, अब ऐसा  जाल बिछाने  दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

मन के इस संकीर्ण भाव को, रे मानव मिट जाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
                                                                                                               (भाउक जी कुछ पंक्तियाँ)
(आइये एक संकल्प लेते हैं ,कन्या भ्रूण -हत्या एक जघन्य अपराध है ,हम सभी को मिलकर साँझा प्रयत्नों एवं जन जाग्रती द्वारा इस कु -कृत्य को जड़ से उखाड़ने केसमस्त प्रयत्न  करेंगें  !यही समय की मांग है !!)

श्रीशनि धाम में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ शपथ

       श्रीशनि धाम में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ शपथ


beti bachao-warp daughter campaign
नई दिल्ली। श्रीशनि धाम में बड़ी संख्या में एकत्र लोगों ने दाती कन्या भ्रूण संरक्षण दिवस के मौके पर बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ, देश बढ़ाओ अभियान चलाने का शपथ पूर्वक संकल्प लिया। असोला-फतेहपुर बेरी स्थित श्रीशनि धाम के पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर दाती महाराज के जन्म दिवस पर प्रमुख साधू-संतों ने कन्या भ्रूण संरक्षण के लिए शपथ ली। साधू-संतों ने लोगों का आह्वान किया कि देश बचाने के लिए बेटी बचाना जरूरी है।
इस मौके पर मौजूद केंद्रीय आवास मंत्री गिरिजा व्यास ने कहा कि दाती महाराज ने बेटी बचाओ अभियान चलाकर समाज को नई दिशा दी है। उन्होंने कहा कि दाती महाराज समाज के विभिन्न वर्गों के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं, महिलाओं के उत्थान के लिए ही उन्होंने दाता की जगह दाती नाम चुना, यह उनका एक मां के दायित्व की तरह है। दाती महाराज ने कहा कि सभी लोग मां, बहन, पत्नी चाहते हैं, पर बेटी क्यों नहीं चाहते? बेटी होगी तभी मां, बहन और पत्नी मिलेगी। उन्होंने कहा कि श्रीशनि धाम ट्रस्ट की तरफ से समाज की निराश्रित, बेसहारा और ग़रीब छात्राओं को शिक्षित करके समाज तथा राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया जा रहा है। इससे उन्हें समाज में सिर ऊंचा करके जीने का अवसर मिला है। उन्होंने बताया कि पश्चिमी राजस्थान में 15 साल से बेटी बचाओ अभियान श्रीशनि धाम ट्रस्ट की तरफ से चलाया जा रहा है।
दाती महाराज ने कहा कि श्रीशनि धाम ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य कन्या भ्रूण हत्या रोकना और बेटी बढ़ाओ, नारी को सशक्त बनाओ है। इस अभियान के तहत छात्राओं को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराई जा रही है। इसके अलावा समाज के उपेक्षित वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाईं जा रही हैं। आश्वासन बाल ग्राम आलावास के बच्चों ने इस अवसर पर बेटी बचाओ-बेटी बढ़ाओ अभियान विषय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। मैं नारी हूं नृत्य नाटिका की प्रस्तुति ने सभी दर्शकों को भावना से भर दिया और सभी की आंखें नम हो गईं। कार्यक्रम में सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं ने शामिल होकर बेटी बचाओ अभियान को भरपूर समर्थन दिया।
इस अवसर पर महामंडलेश्वर कैलाशानंद महाराज, महामंडलेश्वर बालकानंद महाराज, महामंडलेश्वर प्रखरजी महाराज, महामंडलेश्वर आत्मानंद पुरीजी महाराज, महामंडलेश्वर पायलट बाबाजी महाराज, महामंडलेश्वर शिवप्रेमानंद महाराज, महामंडलेश्वर शिवस्वरूपानंद महाराज, महामंडलेश्वर प्रेमानंद महाराज, महामंडलेश्वर दिव्यानंद महाराज, महामंडलेश्वर गिरिधर गिरीजी महाराज, महामंडलेश्वर रामेश्वरानंद सरस्वतीजी महाराज, महामंडलेश्वर आनंद चैतन्य महाराज, महंत नरेंद्र गिरि, महंत शिवनारायण पुरी, आदि संत-महात्माओं ने बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ अभियान की सराहना करते हुए लोगों से अपील की कि वे इस कार्य में अपना पूरा सहयोग दें। सभी संतों को कन्या भ्रूण संरक्षण में विशेष सहयोग के लिए सम्मानित भी किया गया।

Tuesday 16 July 2013


 कविता

कन्या भ्रूण हत्या

खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
आने दो रे आने दो, उन्हें इस जीवन में आने दो
जाने किस-किस प्रतिभा को तुम
गर्भपात मे मार रहे हो
जिनका कोई दोष नहीं, तुम
उन पर धर तलवार रहे हो
बंद करो कुकृत्य – पाप यह,
नयी सृष्टि रच जाने दो
आने दो रे आने दो, उन्हें इस जीवन में आने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
जिस दहेज-दानव के डर से
करते हो ये जुल्मो-सितम
क्यों नहीं उसी दुष्ट-दानव को
कर देते तुम जड़ से खतम
भ्रूणहत्या का पाप हटे, अब ऐसा जाल बिछाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
बेटा आया, खुशियां आईं
सोहर-मांगर छम-छम-छम
बेटी आयी, जैसे आया
कोई मातम का मौसम
मन के इस संकीर्ण भाव को, रे मानव मिट जाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
चौखट से सरहद तक नारी
फिर भी अबला हाय बेचारी?
मर्दों के इस पूर्वाग्रह मे
नारी जीत-जीत के हारी
बंद करो खाना हक उनका, उनका हक उन्हें पाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
चीरहरण का तांडव अब भी
चुप बैठे हैं पांडव अब भी
नारी अब भी दहशत में है
खेल रहे हैं कौरव अब भी
हे केशव! नारी को ही अब चंडी बनकर आने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
मरे हुए इक रावण को
हर साल जलाते हैं हम लोग
जिन्दा रावण-कंसों से तो
आंख चुराते हैं हम लोग
खून हुआ है अपना पानी, उसमें आग लगाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
नारी शक्ति, नारी भक्ति
नारी सृष्टि, नारी दृष्टि
आंगन की तुलसी है नारी
पूजा की कलसी है नारी
नेह-प्यार, श्रद्धा है नारी
बेटी, पत्नी, मां है नारी
नारी के इस विविध रूप को आंगन में खिल जाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

कन्या भ्रूण-हत्या 2




कन्या भ्रूण-हत्या
पाश्चात्य देशों की तरह, भारत भी नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से ग्रस्त है। उनमें सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमारे देश की ही ‘विशेषता’ है...उस देश की, जिसे एक धर्म प्रधान देश, अहिंसा व आध्यात्मिकता का प्रेमी देश और नारी-गौरव-गरिमा का देश होने पर गर्व है।
वैसे तो प्राचीन इतिहास में नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन में बहुत निचली श्रेणी पर भी रखी गई नज़र आती है, लेकिन ज्ञान-विज्ञान की उन्नति तथा सभ्यता-संस्कृति की प्रगति से परिस्थिति में कुछ सुधर अवश्य आया है, फिर भी अपमान, दुर्व्यवहार, अत्याचार और शोषण की कुछ नई व आधुनिक दुष्परंपराओं और कुप्रथाओं का प्रचलन हमारी संवेदनशीलता को खुलेआम चुनौती देने लगा है। साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को, अल्ट्रासाउंड तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग की जानकारी देकर, समाज में कन्या भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी-सम्पन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है।
इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से कुछ चिंता व्यक्त की जाने लगी है। साइन बोर्ड बनाने से लेकर क़ानून बनाने तक, कुछ उपाय भी किए जाते रहे हैं। जहां तक क़ानून की बात है, विडम्बना यह है कि अपराध तीव्र गति से आगे-आगे चलते हैं और क़ानून धिमी चाल से काफ़ी दूरी पर, पीछे-पीछे। नारी-आन्दोलन (Feminist Movement) भी रह-रहकर कुछ चिंता प्रदर्शित करता रहता है, यद्यपि वह नाइट क्लब कल्चर, सौंदर्य-प्रतियोगिता कल्चर, कैटवाक कल्चर, पब कल्चर, कॉल गर्ल कल्चर, वैलेन्टाइन कल्चर आदि आधुनिकताओं (Modernism) तथा अत्याधुनिकताओं (Ultra-modernism) की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, विकास व उन्नति के लिए; मौलिक मानवाधिकार के हवाले से—जितना अधिक जोश, तत्परता व तन्मयता दिखाता है, उसकी तुलना में कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने में बहुत कम तत्पर रहता है।
कुछ वर्ष पूर्व एक मुस्लिम सम्मेलन में (जिसका मूल-विषय ‘मानव-अधिकार’ था) एक अखिल भारतीय प्रसिद्ध व प्रमुख एन॰जी॰ओ॰ की एक राज्यीय (महिला) सचिव ने कहा था: ‘पुरुष-स्त्री अनुपात हमारे देश में बहुत बिगड़ चुका है (1000:840, से 1000:970 तक, लेकिन इसकी तुलना में मुस्लिम समाज में यह अनुपात बहुत अच्छा, हर समाज से अच्छा है। मुस्लिम समाज से अनुरोध है कि वह इस विषय में हमारे समाज और देश का मार्गदर्शन और सहायता करें...।’
उपरोक्त असंतुलित लिंग-अनुपात (Gender Ratio) के बारे में एक पहलू तो यह है कि कथित महिला की जैसी चिंता, हमारे समाजशास्त्री वर्ग के लोग आमतौर पर दर्शाते रहते हैं और दूसरा पहलू यह है कि जैसा कि उपरोक्त महिला ने ख़ासतौर पर ज़िक्र किया, हिन्दू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज की स्थिति काफ़ी अच्छी है। इसके कारकों व कारणों की समझ भी तुलनात्मक विवेचन से ही आ सकती है। मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती। जिस पत्नी से निबाह न हो रहा हो उससे ‘छुटकारा’ पाने के लिए ‘हत्या’ की जगह पर ‘तलाक़’ का विकल्प है और इन सबके अतिरिक्त, कन्या भ्रूण-हत्या की लानत मुस्लिम समाज में नहीं है।
मुस्लिम समाज यद्यपि भारतीय मूल से ही उपजा, इसी का एक अंग है, यहां की परंपराओं से सामीप्य और निरंतर मेल-जोल (Interaction) की स्थिति में वह यहां के बहुत सारे सामाजिक रीति-रिवाज से प्रभावित रहा तथा स्वयं को एक आदर्श इस्लामी समाज के रूप में पेश नहीं कर सका, बहुत सारी कमज़ोरियों उसमें भी घर कर गई हैं, फिर भी तुलनात्मक स्तर पर उसमें जो सद्गुण पाए जाते हैं, उनका कारण सिवाय इसके कुछ और नहीं हो सकता, न ही है, कि उसकी उठान एवं संरचना तथा उसकी संस्कृति को उत्कृष्ट बनाने में इस्लाम ने एक प्रभावशाली भूमिका अदा की है।
इस्लाम, 1400 वर्ष पूर्व जब अरब प्रायद्वीप (Arabian Penisula) के मरुस्थलीय क्षेत्र में एक असभ्य और अशिक्षित क़ौम के बीच आया, तो अनैतिकता, चरित्रहीनता, अत्याचार, अन्याय, नग्नता व अश्लीलता और नारी अपमान और कन्या-वध के बहुत से रूप समाज में मौजूद थे। इस्लाम के पैग़म्बर का ईश्वरीय मिशन, ऐसा कोई ‘समाज सुधर-मिशन’ न था जिसका प्रभाव जीवन के कुछ पहलुओं पर कुछ मुद्दत के लिए पड़ जाता और फिर पुरानी स्थिति वापस आ जाती। बल्कि आपका मिशन ‘सम्पूर्ण-परिवर्तन’, समग्र व स्थायी ‘क्रान्ति’ था, इसलिए आप (सल्ल॰द्) ने मानव-जीवन की समस्याओं को अलग-अलग हल करने का प्रयास नहीं किया बल्कि उस मूल-बिन्दु से काम शुरू किया जहां समस्याओं का आधार होता है। इस्लाम की दृष्टि में वह मूल बिन्दु समाज, क़ानून-व्यवस्था या प्रशासनिक व्यवस्था नहीं बल्कि स्वयं ‘मनुष्य’ है अर्थात् व्यक्ति का अंतःकरण, उसकी आत्मा, उसकी प्रकृति व मनोवृत्ति, उसका स्वभाव, उसकी चेतना, उसकी मान्यताएं व धारणाएं और उसकी सोच (Mindset) तथा उसकी मानसिकता व मनोप्रकृति (Psychology)।
इस्लाम की नीति यह है कि मनुष्य का सही और वास्तविक संबंध उसके रचयिता, स्वामी, प्रभु से जितना कमज़ोर होगा समाज उतना ही बिगाड़ का शिकार होगा। अतएव सबसे पहला क़दम इस्लाम ने यह उठाया कि इन्सान के अन्दर एकेश्वरवाद का विश्वास और पारलौकिक जीवन में अच्छे या बुरे कामों का तद्नुसार बदला (कर्मानुसार ‘स्वर्ग’ या ‘नरक’) पाने का विश्वास ख़ूब-ख़ूब मज़बूत कर दे। फिर अगला क़दम यह कि इसी विश्वास के माध्यम से मनुष्य, समाज व सामूहिक व्यवस्था में अच्छाइयों के उत्थान व स्थापना का, तथा बुराइयों के दमन व उन्मूलन का काम ले। इस्लाम की पूरी जीवन-व्यवस्था इसी सिद्धांत पर संरचित होती है और इसी के माध्यम से बदी व बुराई का निवारण भी होता है।
बेटियों की निर्मम हत्या की उपरोक्त कुप्रथा को ख़त्म करने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰द्) ने अभियान छेड़ने, भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून-पुलिस-अदालत-जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाय केवल इतना कहा कि ‘जिस व्यक्ति के तीन (या तीन से कम भी) बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें (नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की) उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उन पर प्रमुखता व वरीयता न दे, और अच्छा-सा (नेक) रिश्ता ढूंढ़कर उनका घर बसा दे, तो पारलौकिक जीवन में वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा।’
‘परलोकवाद’ पर दृढ़ विश्वास वाले इन्सानों पर उपरोक्त संक्षिप्त-सी शिक्षा ने जादू का-सा असर किया। जिन लोगों के चेहरों पर बेटी पैदा होने की ख़बर सुनकर कलौंस छा जाया करती थी (क़ुरआन, 16:58) उनके चेहरे अब बेटी की पैदाइश पर, इस विश्वास से, खिल उठने लगे कि उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का एक साधन मिल गया है। फिर बेटी अभिशाप नहीं, वरदान, ख़ुदा की नेअमत, बरकत और सौभाग्यशाली मानी जाने लगी और समाज की, देखते-देखते काया पलट गई।
मनुष्य की कमज़ोरी है कि कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी डर, भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानव-प्रकृति को और कौन जान सकता है? अतः इस पहलू से भी कन्या-वध करने वालों को अल्लाह (ईश्वर) ने चेतावनी दी। इस चेतावनी की शैली बड़ी अजीब है जिसमें अपराधी को नहीं, मारी गई बच्ची से संबोधन की बात क़ुरआन में आई हैः
‘और जब (अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब, फ़ैसला और बदला मिलने के दिन) ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से (ईश्वर द्वारा) पूछा जाएगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी’ (81:8,9)।
इस वाक्य में, बेटियों को क़त्ल करने वालों को सख़्त-चेतावनी दी गई है और इसमें सर्वोच्च व सर्वसक्षम न्यायी ‘ईश्वर’ की अदालत से सख़्त सज़ा का फ़ैसला दिया जाना निहित है। एकेश्वरवाद की धरणा तथा उसके अंतर्गत परलोकवाद पर दृढ़ विश्वास का ही करिश्मा था कि मुस्लिम समाज से कन्या-वध की लानत जड़, बुनियाद से उखड़ गई। 1400 वर्षों से यही धरणा, यही विश्वास मुस्लिम समाज में ख़ामोशी से अपना काम करता आ रहा है और आज भी, भारत में मुस्लिम समाज ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ की लानत से पाक, सर्वथा सुरक्षित है। देश को इस लानत से मुक्ति दिलाने के लिए इस्लाम के स्थाई एवं प्रभावकारी विकल्प से उसको लाभांवित कराना समय की एक बड़ी आवश्यकता है।

कन्या भ्रूण हत्या



भारत में लिंग अनुपात
१००० / ९७२ (प्रति एक हजार (१०००) पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या)- जनगणना, १९०१
१००० / ९३३ (प्रति एक हजार (१०००) पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या)- जनगणना, २००१
इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी है। भारत के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। २००१ की जनगणना के अनुसार एक हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या पंजाब में ७९८, हरियाणा में ८१९ और गुजरात में ८८३ है। कुछ अन्य राज्यों ने इस प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक कदम उठाए जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियान' चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएँ चलाई जा रही हैं। भारत में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष १९८१ में एक हजार बालकों पर ९६२ बालिकाएँ थी। वर्ष २००१ में यह अनुपात घटकर ९२७ हो गया। यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की १३८वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लडक़ियों को लडक़ों के समान महत्व नहीं मिलता। लडक़ा-लडक़ी में भेदभाव हमारे जीवनमूल्यों में आई खामियों को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्यों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजों में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भ्रूण स्हर्त्यातुजेत्द्स्ज्य्कि रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगों के बारे में जानकारी देने वाले को १० हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है। प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम १९९४ को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर अगर नजर रखने की जरूरत है। भ्रूण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है। फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना व्केस्र्त्जुच्फ्य्जुय्तिक्र्त्यु तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को २५ हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को २० हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं। बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है। बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है। इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए। ने ऊपर होने वाले अत्याचार को भी वे परिवार के लिए हंस कर सहन करती हैं। यह वास्तव में विडंबना है कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है।एय्ह्व्र्तुयेर्तुय्तिउत्र्य्त्यिउएयुर्तिउ बालिका भूण हत्या की प्रवृत्ित सबसे अधिक अमानवीय असख्य और घृणित कार्य है। पितृ सत्तात्मक मानसिकता और बालकों को वरीयता दिया जाना ऐसी मूल्यहीनता है, जिसे कुछ चिकित्सक लिंग निर्धारण परीक्षण जैसी सेवा देकर बढावा दे रहे हैं। यह एक चिंताजनक विषय है िक देश के कुछ समृध्द राज्यों में बालिका भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति अधिक पाई जा रही है। देश की जनगणना-२००१ के अनुसार एक हजार बालकों में बालिकाओं की संख्या पंजाब में ७९८, हरियाणा में ८१९ और गुजरात में ८८३ है, जो एक चिंता का विषय है। इसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। कुछ अन्य राज्यों ने अपने यहां इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक प्रभावकारी कदम उठाए जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियान' चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं। यह कार्य केवल सरकार नहीं कर सकती है। बालिका बचाओ अभियान को सएउर्फत्लएरुइएत् बनाने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी बहुत ही जरूरी है। देश में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष १९८१ में एक हजार बालकों के पीछे ९६२ बालिकाएं थीं। वर्ष २००१ में यह अनुपात घटकर ९२७ हो गया, जो एक चिंता का विषय है। यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की १३८वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लडक़ियों को लडक़ों के समान महत्व नहीं मिलता। लडक़ा-लडक़ी में भेदभाव हमारे जीवनमूल्यों में आई खामियों को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्यों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजों में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भ्रूण स्हर्त्यातुजेत्द्स्ज्य्कि रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगों के बारे में जानकारी देने वाले को १० हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है। प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम १९९४ को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर अगर नजर रखने की जरूरत है। भ्रूण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है। फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को २५ हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को २० हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं। बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है। बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है। इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए।